इंसानों में भेद

हम जब भी गलियों से गुजरते हैं
पीछे-पीछे हंसते हुए,
दौड़ते हैं झुंड में बच्चे
महिलाएं छिपाती हैं आंचल में
अपनी हंसी
और करती हैं
इशारों में बात
नहीं होती जिसको खबर
हमारे आने की
मिल जाती है उनको भी सूचना
गली में लगी भीड़ से
और हमारी तालियों की गूंज से
चलते फिरते खिलौने हैं 
हम इस दुनिया के लिए
न स्त्री माना, न ही पुरुष
धकेल कर निकाल दिया गया बाहर
हमारे अपने ही परिवार से 
और इस समाज से ।

आएं हैं हम भी
तुम्हारी ही तरह
रहकर 9 महीने उस कोख में
किया होगा हमारी मां ने भी
उतना ही बेसब्री से इंतजार।
रोई होगी देखकर वो मुझे
उस दिन खूब
और कोसी होगी उसने अपनी किस्मत
क्या इसी के लिए मैं कर रही थी
इतना लंबा इंतजार?
प्रेम तो करती थी वो मुझसे
पर पता नहीं क्यों 
उसने थमा दिया मुझे दूसरों के हाथ।

नहीं देखती यह दुनिया हमें
इज्जत की नजर से
देते हैं हम तो इन लोगों को 
सदा खुश रहने की दुआ
और ये लोग करते हैं हमारा अपमान
तरह-तरह के हमें दिए गए नाम
हम कैसे रहेंगे, कैसे बोलेंगे
क्या काम करेंगे
तय कर दिया सब कुछ
इस समाज ने ।
हम भी खाते हैं
सोते हैं, बोलते हैं, गाते हैं
जब सब कुछ है समान 
हम लोगों में
तो क्यों है ये भेद 
हम इंसानों में?

मेरा दोस्त

किसने कहा वह बोलता नहीं
हंसता नहीं। 
जब-जब मैंने उसे देखा
अपनी जिंदगी जीते हुए देखा ।
छिड़की थी जब मैंने 
अपने हाथों से कुछ बूंदे
उस पर पानी की 
तो मानों खुश होकर लहरा दिए थे
उसने भी अपने पत्ते रूपी हाथ
करता था वह भी मुझसे 
उतनी ही बात
जितनी करती थी मैं उससे बात।
जब जाती थी मैं मिलने 
उससे सुबह-सुबह
तो मानो, सोया हुआ चेहरा 
उठा लेता था
और हो जाता था मिलने को 
उतना ही व्याकुल। 
नहीं पता 
उसे मैं क्या नाम दूं ?
अपना बच्चा कहूं या अपना दोस्त ।
जब था वो एक इंच का
तब से बढ़ते हुए देखा था, मैंने उसे
जब- जब खुद को 
महसूस किया था अकेला मैंने
तो बैठ जाती थी
जाकर उसके समीप। 
करता था वह पूरी कोशिश
ताकि बांट सके मेरे दुख
हिला-हिलाकर अपने पत्ते
पूछता था मेरा सुख-दुख
समझदारी के साथ-साथ
हो गया है आज वो 
मेरे जितना ही बड़ा
मिलने के लिए अब मुझसे
या देखने के लिए
नहीं ताकना पड़ता 
उसे आसमान की तरफ ।
मिलाता है अब वो मुझसे 
अपने लंबे हाथ
और कभी-कभी तो
भर लेता है वो मुझे
अपने आलिंगन में। 

प्रेम

बदल गया है अब 
तुम्हारा मेरे लिए प्रेम
या बदल गई हूं खुद मैं
एक समय था 
जब नहीं थकते थे तुम
तारीफ करते हुए दिन – रात 
याद है आज भी मुझे
तुम्हारे वे खूबसूरत बोल
जिन्हें सुन कर मैं 
हो जाती थी तुम्हारी दीवानी 
ये चांद सा मेरा चेहरा
मलाई जैसा रंग
जब तुम थामते थे 
मेरा ये गोल चेहरा
अपनी हथेलियों के बीच
और चूम लेते थे मेरा माथा
चूंकि तुमको पसंद थी मेरी
सुघड़ गोल छातियां 
तुम्हारी पसंद की खातिर 
करा ली थी सर्जरी
तुम्हारे प्रेम की खातिर
बदल दिया मैंने खुद को
पर अब तुमको क्या हुआ? 
क्यों बदल गया तुम्हारा प्रेम
अब तुम कहते हो 
मुझमें नहीं रहा कोई रस…
न ही रही कोई अदा

बदल गई हूं मैं
और बदल गया है मेरा शरीर
आ गईं हैं चेहरे पर झुर्रियां
चाल में नहीं रही वो अदा
न ही रहा छातियों में कसाव
पूछती हूं मैं तुमसे ही
जरा बतला कर जाओ
क्या बदल गया है मेरा प्रेम?
या बदल गई है मेरी आत्मा?
मेरे लिए तो तुम आज भी हो
दुनिया के सबसे खूबसूरत इंसान
मैंने छोड़ा था तुम्हारे लिए
अपना घर -परिवार
आज तुमने ही छोड़ दिया
मुझे न जाने किस पार…

वेश्या

बदनाम हैं सिर्फ वही स्त्रियां 
जो कमाती हैं पैसा
बेचकर अपना शरीर 
जो मिटाती हों किसी के तन की भूख
पूछती हूँ मैं इस दुनिया से 
क्या गलत किया था 
उस दिन मैंने
जो दिया गया था मुझे ही
चरित्रहीन का नाम??

बिलख रहे थे उस रात 
कोठरी में मेरे बच्चे
भूख की उठती पीड़ा से
मांग बैठी थी मैं 
भीख उस अमीरजादे से
दूध भरी उन मासूम  
आंखों की खातिर
हो गयी थी मैं मजबूर
सोने के लिए 
साथ उसके बिस्तर पर
सिर्फ मैंने नहीं त्यागे थे 
अपने वस्त्र
उस रात त्यागे थे 
उसने भी अपने वस्त्र
मजबूर थी मैं पेट की खातिर
और वो मजबूर था 
अपनी प्यास की खातिर
पर इस जालिम दुनिया ने
मुझे ही क्यों दिया था 
वेश्या का नाम? 

क्यों सही है ईटा ढोना
बर्तन मांजना, झाड़ू लगाना ?
क्यों गलत है सेक्स करना? 
किया था हम दोनों ही स्त्रियों ने
अपने शरीर का इस्तेमाल
दोनों कामों की तुलना में
देखा गया उसके काम को
सम्मान भरी नज़रो से
वहीं देखा गया मेरे काम को
अपमान और घृणा की नजरों से।

अपना घर

कहा करते थे आप
हूँ मैं इस घर की बेटी
बराबर बेटों के ही
है तुम्हारा भी
इस संपति में अधिकार।
अब बोल रहे हैं आप
लौट आओ अपने घर
चुका दूंगा मैं एक पाई-पाई।
और कर लो शादी
वही होगा तुम्हारा 
असली घर-परिवार…
छोड़ दो पढाई
और करो सास की सेवा
खिलाओ सबको 
मजेदार सब्जी
और वही कम मिर्च की मच्छी
जो खिलाती रही हो 
आज तक तुम मुझको।
होगी धूम धाम से शादी
करेंगे खर्च 15 लाख
साथ ही देंगे
तुम्हारे हिस्से की संपति
और चार पहिये की गाड़ी…
आखिर 
इकलौती बेटी हो तुम मेरी
बस….
कोई ब्याह ले जाये
अब तुमको।

संपति में अधिकार?
इकलौती बेटी?
पर पापा… 
मुझे एक बात बताइए
एक भाई ने
पकड़ बालों का जूड़ा
मार भगाया था नीचे से
दूसरे ने भगाया ऊपर से
क्या तब भी थी मैं 
इस घर की बेटी???
याद है मुझे 
अब भी वो दिन
जब टहल रही थी मैं छत पर
तो कैसे अपशब्द बोल 
भगा दिया था 
भाई ने वहां से
देने पर जवाब 
उतार ली थी
पैर में से चप्पल
तब आप कहाँ थे?
क्या तब भी था 
ये मेरा घर?
जब तरस गयी थी मैं
देने को पौधों में पानी
देखने को सूरज
सुखाने को छत पर कपड़े!
तरस गयी थी मैं
निकलने को इस चारदीवारी से।

नहीं भूली हूँ मैं
जब छोड़ दिया था 
आपने भी ये साथ
इतना रोने के बाद भी 
नहीं दी थी
मेरे एडमिशन की फीस।
आप ही बताइए
कैसे लौट आऊं वहां से
मिलता है जहाँ मुझे 
इतना प्यार और अपनापन
जहां घूमती हूँ मैं 
बेख़ौफ़ उन सड़को पर
बैठ अपने कमरे में
तलाशती हूँ उन सपनो को
अब कोई नहीं कहता
घर मे दोस्तो को क्यों लाई?
इतना लेट क्यों आयी?
सफाई क्यों नहीं की
खाकर बर्तन नहीं रखी।
ऐसे कपड़े क्यों पहनी?
या आज क्यों नहीं नहाई?

दोस्ती

गोल गोल आटे की लोई
धारण किये बाटी का रूप
एक इंच का मुँह खोलकर
बोले जोर-जोर चिल्लाकर
मुझको है चोखे से मिलना
जो है मेरा दायां हाथ
जिसमें है आलू के साथ
बैंगन, मिर्च, प्याज 
और लहसुन का मेल
साथ में थोड़ा सा
कच्ची घानी का तेल
हां… भूल मत जाना
उस राजा को 
जो महफ़िल में भरता है रंग
मन को कर देता है खुश
जिसके बिना हो सब फीका फीका
हां हां वही…
और हम सबका दुलारा
नमक राजा।
हां ले चलो मुझे 
मेरे उस दोस्त के पास
साथ में भूल न जाना
मेरा बांया हाथ।
जो खुश करता है सबको
नहीं पसन्द हो जिसको
सूखा खाना
जिनको अटकता हो
बाटी और चोखे का मेल
उस कमी को भर देती है
मेरी दोस्त दाल का मेल
जैसे हूँ मैं अधूरी 
उनके बिना
वैसे ही वो हैं अधूरे मेरे बिना
जब भी लिया जाएगा मेरा नाम
साथ ही लिया जाएगा
हमेशा… 
चोखे और दाल का नाम
ऐसा ही है हमारा साथ।
नहीं जरूरत चूल्हे की
न जरूरत आलीशान जगह की
ना ही जरूरत 
बहुत पैसों की।
नहीं हो किसी के पास पैसा
या न हो घर द्वार
तो सड़क किनारे
या पेड़ के नीचे
जलाकर आग 
मिल सकता है
हर इंसान हमसे।

 

पहले का भारत और आज का भारत

क्या यह वही भारत है ? 

जो  हजारों लाखों कुर्बानियों के बाद

1947 में हमें मिला था 

जिसे महात्मा गांधी, नेहरू और भगत सिंह 

ने हमे अपनी कुर्बानी देकर चुकाया था।

नहींं ये वो भारत तो नहींं लगता।

ऐसा तो मेरा भारत नहींं था।

आज पूरे भारत का नक्सा ही बदल गया है।

दक्षिण पंथ का प्रभाव पूरे भारत पर पड़ रहा है।

मनुस्मृति की मानसिकता को जनता के दिमाग मे

एक इंजेक्शन की तरह डाला जा रहा है,

राष्ट्रवादी विटामिन का फायदा बताकर

जोकि शरीर मे जाते ही एक जहर घोलती है,

हिंदुस्तान, पाकिस्तान और आतंकवाद के नाम का

लेकिन लोग एक दूसरे को विटामिन दे रहे है,

और खुद खा भी रहे है।

लोगो को पता ही भी चल रहा है कि 

ये जहर केवल उनके अंदर ही नहीं,

बल्कि आने वाली पीढ़ियों के अंदर भी घुलता जा रहा है।

जिसका पता हमें आने वाले समय मे चलेगा 

सबसे बड़ी विडंबना यह है कि

भारत वह 72 साल के पहले वाला भारत नहींं रहा

भारत का नक्सा हर दिन दीमक चाटता जा रहा है 

लेकिन अफसोस कि 

लोग उसको ही भारत समझ रहे है।

मानवीयता खत्म होती जा रही है लोगो के प्रति

पशुओं ,पंछियो पेड़ पौधों की तो बात ही छोड़ दीजिए।

लोग अच्छे और बुरे की पहचान करना,

किस पर गर्व और किसका सम्मान करना चाहिए 

इसका फर्क नहींं कर पा रहे है।

इसलिए ही तो रवीश कुमार को मिले

मैग्सेसे अवार्ड पर मीडिया चुप थी।

मनुष्य और मनुष्य में भेद तो 

कई सालों से चला आ रहा है।

अब पशुओं और जानवरों को भी 

एक दूसरे से बंटा जा रहा है।

इंसानों को गाय के नाम पर मारा जा रहा है।

प्रेमी प्रेमियों को ऑनर किलिंग, 

मासूम लोगो को मॉब लॉन्चिग के नाम पर,

पेड़ से बांधकर 

खुले आम मार दिया जा रहा है।

हर रोज स्त्रियों का बलात्कार हो रहा है

और

चुप्पी ने इस देश मे अपनी जड़ें जमा ली है।

क्या 72 साल पहले ऐसा ही था मेरा भारत?

विकास तो आज 72 साल से ज्यादा हुआ है।

इसलिए तो आज देश का एक -एक बच्चा 

भूख से मर रहा है।

किसान और मजदूर हर घण्टे पेड़ पर लटक कर,

नदी में कूदकर अपनी जान दे रहा है।

किसानों,मजदूरों,गरीबो का घर पानी मे दुब रहा है,

फसलें बर्बाद हो रही है ।

विरोध कर रहे लोगों पर 

गोली और आंसू गैस दागा जा रहा है।

हजारों की तादात में लोग मर रहे है लेकिन 

बताया कुछ को जा रहा है ।

क्या यही है वो भारत?

यह देश बहुत ही अनोखा है इस दुनिया मे

यहाँ अचानक से सब कुछ होता है।

कभी रात के 8 बजे नोट बंदी होती है,

कभी अचानक से 72 साल पहले किये गए

वादों को तोड़ा जाता है ।

नियमो को बदला जाता है 

लोगो को खुद उनके ही घर मे 

कैदी बनाकर कैद कर दिया जाता है।

सारी सुविधाएं बंद कर दी जाती है।

लोगो की चीखें और लोगो की आवाज को 

दबा दिया जाता है फिर

तीन हिस्सों में बांट दिया जाता।

मुस्लिम महिलाओं को तीन तलाक से 

आजाद करवाया जा रहा है ।

इस नियम से हजारों लोग खुश है 

तालिया बजा रहे है।

इस सरकार की पीठ थपथपा रहे है और

गर्व से सीना फुलाकर सिर ऊँचा कर रहे है।

जब कि इस देश मे हिन्दू महिला भी,

सब कुछ करने को आजाद नहीं है।

ऐसा ही था क्या मेरा भारत?

गाँधी, नेहरू,अम्बेडकर और भगतसिंह के इस देश मे,

गर्व करने की परिभाषा नई गढ़ी जा रही,

तरंगे को पहले,

एवरेस्ट की चोटी, क्रिकेट के मैदान , लाल किले और चाँद पर,

गाड़ कर लोग गर्व महसूस करते थे।

आज किसी के सीने में झंडा गाड़ना ,

बहादुरी और गर्व का प्रतीक माना जा रहा है।

यहां कुछ भी किया जा सकता है। तिरंगे झंडे को अब कही भी गाड़ा जा सकता है

रोजगार के नाम पर पकौड़ा बेचवाया जा सकता है 

और!

मंदी की भट्टी में झोंका का जा सकता है।

अपने ही देशवासियों को देशद्रोही कहकर,

देश से निकला जा सकता है।

क्या यही सपनो का भारत है क्या?

नेहरू जी ने भारत के बंटवारे की आखरी रात को ,

अपने भाषण में कहा था कि

‘वह हर इंसान के एक-एक आँख से आंसू पोछ देना चाहते है’।

लेकिन आज के समय मे हर एक आँख रो रही है।

कई सालों से 

धर्म के नाम पर लोगो को लड़ाया जा रहा है।

इसलिए ही अभी तक

मंदिर मज्जिद का विवाद खत्म नहीं हुआ ।

कहते है कि मुसलमानों ने

हिंदुओ के देवी देवताओं की मूर्तियों को तोड़ कर,

मंदिर को लूट लिया। 

हजारों लाखों लोगों की आस्थाओं पर चोट की।

आज कौन किसकी आस्था को चोट पहुँचा रहा है।

आज इसी देश मे एक तरफ

दलितों के रविदास मंदिर को,

तोड़ा जा रहा

वही आयोध्या में,

राम मंदिर बनवाने की बात चल रही है।

क्या यह हजारों लोगों की आस्था पर चोट नहींं है क्या?

यहाँ रातो रात,

भगतसिंह, राजगुरु के साथ वीरसावरकर की मूर्ति 

लगा दी जाती है।

जिस नाथूराम गोड़से ने गांधी जी की हत्या की,

उस गांधी जी की हत्याकांड में दोषी वीरसावरकर को 

कला पानी की सजा मिली थी।

उसकी मूर्ति भगतसिंह, राजगुरु जैसे,

महान वीरो के साथ लगाया जा रहा।

इस देश मे

नाथूराम गोड़से ,वीरसावरकर को स्थापित करने की

पुरजोर कोशिश की जा रही है

इस तरह की तमाम रणनीति रची जा रही है।

क्या इसको ही भारत कहे क्या?

नहीं यह तो पहले वाला भारत नहींं लगता 

हजारों की तादात में लोग चुप है

शायद

लोगो ने हालात से समझौता कर लिया है।

लेकिन याद रहे कि हमारी चुप्पी एक दिन

हमसे हिसाब मांगेगी।

हम तभी चुप रहेंगे 

मगर दोनों चुपी में बहुत अंतर होगा।

जिस अंतर को भरने के लिए हम नहींं होंगे।

पुल पर खड़ी लड़की

चाय की एक चुस्की लेकर
मैंने कप बगल में रखा
व्यस्त था दुकानदार
अपने पकौड़ों में
और सिवाय मेरे
नहीं था कोई दुकान पर।
लहरा गया पीला दुपट्टा
पुल पर खड़ी लड़की का
और रौनक आ गई
मेरे चेहरे पर।
गाड़ियां भाग रही थीं
पूरी रफ्तार से
और मुसाफिर
एक दूसरे से अनजान
बस चले जा रहे थे।
नहीं था मेरी
या उसकी तरफ
किसी का भी ध्यान।
खड़ी थी वह
कोई डेढ़ सौ कदम दूर
पर सड़क के दूसरी ओर।
नजर मिल चुकी थी हमारी
और तुरंत ही घूम गई वह
ऐसे ही घूम जाती हैं लड़कियां
प्रेम में पड़ने के ठीक पहले
पता था मुझे यह रहस्य।
एक हाथ खम्भे पर टिकाए
देखने लगी वह नदी का बहाव।
शायद इंतज़ार था किसी का
पर जाहिर लगा उसकी अदा से
कि इंतज़ार
प्रेमी का ही क्यों न हो
वो कर सकती है दुबारा प्रेम।
हिलोरें मार रही थी
उधर नदी
और इधर मेरी भावनाएं।
वह मुड़ी
और इस बार जरा देर तक
देखती रही मुझे
जैसे चाह रही हो पहचानना
हल्का सा इशारा कर दिया था मैंने
मुंह उठाकर
और अचकचा कर
सामने चलती गाड़ियां देखने लगी वह।
अशोभनीय था
बिना स्पष्ट इशारे के उसके पास जाना
तो बैठा रहा मैं
कुछ देर को खो सी गई थी
गाड़ियों के घूमते पहियों में
शायद सोचने लगी थी कुछ
फिर देखने लगी
दोनों किनारों पर लगे पेड़
और फिर से बढ़ी हुई नदी।
उसने फिर देखा मुझे
जैसे संदेह था उसे
पहली ही मुलाकात में
मेरे आगे बढ़ने पर।
पर लुभा लिया था उसने
और यकीन था मुझे
कि दे बैठेगी दिल वह भी
अभी ही तो कदम रखे हैं उसने
जवानी की दहलीज पर
और महसूस किया है मुझे
अपने करीब
इतनी देर तक।
उससे मिलने को तैयार
उठ खड़ा हुआ मैं
और जैसे भांप लिया हो उसने
सिहर गई थी वह
जैसे सिहर जाती है कोई भी लड़की
पहले स्पर्श से ठीक पहले।
अचानक ही
लगा दी छलांग उसने
उफनती नदी में
बज गए कई हॉर्न एक साथ
दौड़ पड़े थे लोग
जड़ हो गए थे मेरे पैर
भीड़ इकट्ठी थी ठीक वहीं
जहां लहरा रहा था दुपट्टा
थोड़ी देर पहले।
पसर गया था सन्नाटा कुछ देर को
पर छंटने लगी थी अब भीड़
जोश और जवानी जैसे शब्द
पड़े मेरे कानों ने
मगर सन्न था मैं
टटोल नहीं पा रहा था
खुद अपने मनोभाव।

दो महीनें एक लिफाफा – नेहा

कहा करती थी हमेशा

ले चलना भैया 

अपने यूनिवर्सिटी में

पढ़ते जहां हो तुम

हजारों लोगों के बीच

करते हो दिन-रात 

सवालों पर विचार और विमर्श

दिखाना सब कुछ 

वो गली वो सड़के 

लिख चार्ट पेपर पर जहां

मांगते फिरते “आजादी”

किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की 

चाहती हूँ मैं भी 

उठाऊ उनके लिए आवाज

लड़ झगड़कर मां पिता से 

लेता ही आया आखिर 

बहन को साथ दिल्ली

करने को तैयारी

एम.ए के इंट्रेंश के लिए 

मिलाया दोस्तों से

घुमाया बहुत जगहों पर

खुश बहुत थी वो 

चाहती थी और घूमना लेकिन

आ गया था करीब एग्जाम 

कह दिया था अपने दोस्त से

पढ़ा दे बहन को

देखकर पहले ही दिन

झुका ली थी पलकें उसने

गया वो भी कुछ शर्मा सा

चलने लगी थी जोर शोर से

पढ़ाई के साथ-साथ पत्र व्यवहार

मिलने लगे थे दोनों छुप-छुपकर 

मुस्कुराकर एक दिन

कह दिया पता है सब

डरो नहीं मुझसे

चाहोगी जो वही होगा

ले लो एडमिशन यहीं

रहना फिर साथ दोनों 

रख कंधे पर सर रोने लगी कहा,

नहीं भैया तुम्हारे जैसा कोई

बीते ही थे कुछ दिन पेपर के

आने लगा घर से बार- बार

मां पिता का फोन लेकिन 

टाल रहा था मैं

जाने से दो दिन पहले

खूब घूमे थे हम 

आ गया अब दिल्ली

पहुँचाकर बहन को

दो महीनों तक लगातार

भेजते रहे दोनों पत्र

मिल गया दराज से 

एक समय पिता को

कुछ फ़ोटो लेटर के साथ

मच गया कोहराम घर में

खड़े दरवाजे पर मैं और वो

देख रहे थे

पड़े जमींन पर उल्टी चप्पलें और

रखे कोने में सरकंडे

कुछ टूटी चीजें, बिखरी तस्वीरें 

छोटे-छोटे टुकड़ों में कागज के पन्ने

दिख रही थी दूसरी तरफ

परछाईं दीवार पर 

बिल्कुल सीधी और ठहरी हुई

लंबी सी किसी चीज की….

थमा गया इसी बीच कोई

लगे स्टम्प का लिफाफा

रुक गई थी नजरें

उस एक शब्द पर….

बदनाम पुरुष – उषा

बदनाम थे सब पुरुष
कुछ लोगों के चलते।
मैं कहता हूँ 
क्या गलती है उनकी?
करते वक़्त काम
जैसे अकड़ जाती है 
स्त्रियों की कमर
उसी तरह अकड़ जाती है 
हमारी भी रीढ़।
पर तुम कैसे समझोगे
घूमते हो करके छाती चौड़ी
दिखाते हुए सीने के बाल
कहते हो खुद को मर्द
और छेड़ते हो लड़कियां 
सड़को के पार।
कभी आकर देखो हम मजदूरों को
झुके-झुके जब भरनी पड़ती है बालू
या लगाना पड़ता है पोछा
ढोनी पड़ती है कमर पर
ईंटो की कतार
तब कैसा होता है अहसास।
छूकर देखो कभी ये हाथ
मिल जाएंगी जिन पर
फफोलों के साथ अनेकों गांठें भी।
नहीं हैं हम अलग स्त्रियों से
बना दिया था इस समाज ने
हमें भी उनकी ही तरह।
पेट भरने की खातिर
खींचना पड़ता है रिक्शा
और बीनना पड़ता है कूड़ा।
कड़कती धूप में
लिए हाथ में कटोरा
बैठी रहती है सड़क किनारे
गोद मे लिए बच्चा।
कर लेते हो कैसे तुम
क्या नहीं दिखती 
रोती हुई वो मासूम आंखे?
गिड़गिड़ाते हुए
मांगती हैं जब 
बचाने को इज्जत की भीख।
देंखना चाहिए तुम्हें 
दुत्कार दिया जाता है जब
मांगने पर रुपया या दो रुपया।
कभी देखी है
उन आंखों में भूख की तड़प
जो निहारती हैं 
लिए आशा की उम्मीद
पर अफसोस…
कुछ मर्दों को दिखती है
सिर्फ और सिर्फ 
अपनी ही भूख की तड़प।