बदनाम थे सब पुरुष
कुछ लोगों के चलते।
मैं कहता हूँ
क्या गलती है उनकी?
करते वक़्त काम
जैसे अकड़ जाती है
स्त्रियों की कमर
उसी तरह अकड़ जाती है
हमारी भी रीढ़।
पर तुम कैसे समझोगे
घूमते हो करके छाती चौड़ी
दिखाते हुए सीने के बाल
कहते हो खुद को मर्द
और छेड़ते हो लड़कियां
सड़को के पार।
कभी आकर देखो हम मजदूरों को
झुके-झुके जब भरनी पड़ती है बालू
या लगाना पड़ता है पोछा
ढोनी पड़ती है कमर पर
ईंटो की कतार
तब कैसा होता है अहसास।
छूकर देखो कभी ये हाथ
मिल जाएंगी जिन पर
फफोलों के साथ अनेकों गांठें भी।
नहीं हैं हम अलग स्त्रियों से
बना दिया था इस समाज ने
हमें भी उनकी ही तरह।
पेट भरने की खातिर
खींचना पड़ता है रिक्शा
और बीनना पड़ता है कूड़ा।
कड़कती धूप में
लिए हाथ में कटोरा
बैठी रहती है सड़क किनारे
गोद मे लिए बच्चा।
कर लेते हो कैसे तुम
क्या नहीं दिखती
रोती हुई वो मासूम आंखे?
गिड़गिड़ाते हुए
मांगती हैं जब
बचाने को इज्जत की भीख।
देंखना चाहिए तुम्हें
दुत्कार दिया जाता है जब
मांगने पर रुपया या दो रुपया।
कभी देखी है
उन आंखों में भूख की तड़प
जो निहारती हैं
लिए आशा की उम्मीद
पर अफसोस…
कुछ मर्दों को दिखती है
सिर्फ और सिर्फ
अपनी ही भूख की तड़प।
भाषा अच्छी है, प्रवाह भी खूब है। लेकिन विषय फैल गया है। लगता है दो तीन अलग अलग कविताओं के अंश एक साथ आ गए हैं। कुछ जगहों पर अर्थ भी अस्पष्ट है। कुछ पुरुष जो अच्छे हैं, वो कौन हैं और क्यों अच्छे हैं नहीं पता चलता, लगता है कि श्रम के कारण अच्छे हैं। दूसरी तरफ मासूमियत की बात की गई है, भूख की बात की गई है। मन की कल्पना कविता में उतर नहीं पाई है।
भाषा की काव्यात्मकता अच्छी लगी
कविता जो विषय है अलग चुना गया तो अच्छा लगा!
पुरुषों के बीच तो तुलना की गई है उस हिसाब से निम्न और उच्च वर्ग की तुलना और इसे पुरुष की तुलना भी जिसे लफ़ंगा कहते है! नही है स्त्रियों से अलग में नारी विरोधी कविता लगने लगती है!अंत झटके से कर दिया गया है!
कविता पुरुषप्रधान है। यह कविता उन पुरुषों पर लिखी गई है जो खुद की तारीफ अपने मुंह से करते है क्योंकि वो मर्द है इस कविता में दो तरह के पुरुषों के व्यक्तित्व को दिखाया गया है। इसलिए अच्छी लगी कविता। भाषा अच्छी है । सब कुछ के बाद भी इस कविता में कुछ भी रहस्य नहीं है सब कहकर बता दिया गया है।
कुछ पुरुषों के चलते सभी पुरुषों के बदनाम होने के मुद्दे से शुरू करने के बाद कविता इस सवाल को लगभग छोड़ ही देती है।
मजदूर स्त्रियों और पुरुषों के बीच बहुत अच्छी तुलना की गई है। भाषा और बिंब भी काफी बढ़िया हैं।
नरेटर गरीब पुरूष है जो खुद को स्त्रियों से अलग नही समझता लेकिन कविता में कई अलग-अलग स्वर हैं :
शुरुआत की दो पंक्तियां आत्मालाप/एकालाप की तरह हैं जैसे अदृश्य नरेटर वाली शैली में होता है।
आगे चल कर (मैं कहता हूं) कविता पाठक को संबोधित करने लगती है
पर 9वीं पंक्ति (तुम कैसे समझोगे) से नरेटर लड़कियों के छेड़ने वाले आवारा लड़कों को संबोधित करने लगता है। आगे चल कर वापस पाठक से बतियाने लगता है।
इन अलग-अलग स्वरों के चलते प्रभाव घटता है और अर्थ पकड़ने में उलझन भी होती है। एक ही टोन में रखना चाहिए, मुख्य बात को पकड़े रहना चाहिए।
इस कविता पर और मेहनत की जाए खासकर संपत्ति, श्रम और सौंदर्य के रिश्ते को और कसा जाए तो बहुत गंभीर और बढ़िया कविता बन सकती है ये।
कविता का विषय अच्छा है और मैच्योर कविता है ।
स्त्रियों के साथ पुरुष की मेहनत को दिखाया गया है ।
मजदूर वर्ग भी कड़ी मेहनत करता है । मेहनती पुरुष की तरफ से कविता उन पुरुषों के लिए है जो लफंगे , अय्याश है । मजदूर वर्ग की मेहनत को दिखाया है किन परेशानियों को झेलते है । साथ ही स्त्रियों से तुलना की गई है कि ऐसा नही है कि पुरूष बिना मेहनत रहते हैं । उच्च वर्ग और निम्न वर्ग दिखाया गया है