हाथ पकड़ कर
खदेड़ा जा रहा था
बाबा को जब।
की थीं कितनी मिन्नतें
माँ ने उस वक़्त।
तनिक और समय दे दो साहिब
चुका देंगे एक-एक पाई।
बेचना पड़ जाए
चाहें मुझे खुद को ही
पर नहीं करेंगे इस बार निराश
बस एक
सिर्फ एक आखिरी मौका…
वो हट्टा-कट्टा आदमी
आंखों में ओढ़े
हैवानियत की चादर,
निकाल फेंका था
कूड़े की भांति
हम सबको घर से बाहर।
उफ़्फ़फ़…
शायद कूड़ा ही थे
सबके लिए हम।
माँ को बिलखते देख
कितनी रोई थी रूपा।
सीने से चिपकाए
और पकड़े चिंटू की उंगली
चल पड़े थे हम
अपने भगवान के भरोसे।
ठिठुरते,
घने अंधेरे को चीरते हुए।
कहा करती थी माँ
“नहीं होता कोई जिनका
उनका होता है भगवान”
ढूंढ रहे थे चारों और
आंखों में लिए
हम आशा की उम्मीद।
कि भेजेंगे जरूर
भगवान एक फरिश्ता।
पर शायद सो रहा था
हम लोगों का भगवान।
रोये जा रही थी
अब तक रूपा।
भूख से?
शायद अंधेरे से!
नहीं! नहीं!
ठंड से।
उड़ा दिया था माँ ने उसको
उतारकर अपने सिर का पल्लू।
घनघोर अंधेरे में
दिख रही थी
सड़को के किनारे
जलती हुई लाइट।
दे रही थी सुनाई आवाज
कुत्तों के भौकने की लगातार।
नहीं चाहते थे शायद वो भी
कि ठहरे हम फुटपाथ पर।
भटकते हुए जा पहुँचे
एक मंदिर के बाहर।
ले आया था चिंटू
कोने में पड़ी पत्तल से
उठाकर अधखाया लड्डू।
लिटाते हुए रूपा को
मंदिर के फर्श पर
कर रही थी माँ कोशिश
सुलाने की
थपकी देकर लगातार।
कानों में जब पड़ी आवाज
“उठो-उठो आ जाते हैं
पता नहीं कहाँ-कहाँ से”
लग गयी थी बैठे-बैठे
शायद रात को आंख।
उठ गए थे
हड़बड़ाकर हम सब।
हो गयी थी सुबह।
पर इस बार
कर रही थी माँ कोशिश
रूपा को उठाने की लगातार।
कविता एक चीज पर फोकस नहीं करती, फैल जाती है। यानी जहां से वह शुरू करती है और जहां अंत करती है दोनों के बीच बहुत दूरी बन जाती है और इसीलिए दोनों दृश्य एक दूसरे से कट जाते हैं। निकाल दिए जाने के बाद का दृश्य ठीक बना है इस लिहाज से कविता भी सही है, लेकिन यह चैलेंज वाली कविता नहीं है। इसके नैरेटर का जेंडर पता नहीं चलता।
कविता की शब्दावली अच्छी लगी
आँखों मे ओढे हैवानियत की चादर ये वाक्य अच्छा लगा!
इस कविता में मार्मिकता लाने की कोशिशकी गई है पर लगता है आँखों के सामने मूवी का सीन आ जाता है जिसकी वजह से वास्तविक होने से रुक सी जाती है!
कविता काफी मार्मिक और अच्छी है। भाषा के साथ साथ कविता पूरे फ्लो में चल रही थी शुरू से अंत तक पाठक को बांधे हुए थी। *कुत्तों के भौकने की लगातार।
नहीं चाहते थे शायद वो भी
कि ठहरे हम फुटपाथ पर।* ये काफी प्रभावशाली हिस्सा है। इनका तो सच मे कोई नहीं था।
कविता में बिम्ब बन रहा है । कविता के अंत की 2 लाइन सांकेतिक है , अर्थ स्प्ष्ट नही-
” कर रही थी माँ कोशिश
रूपा को उठाने की लगातार ”
कविता में ज़बरदस्ती संवेदनाएं बटोरी गई हैं ।
शब्दो का प्रयोग अच्छा किया गया है ।
नैरेटर कविता में खुद पात्र हैं। पर गायब भी है ,चिंटू और रुपा की एक्टिविटी है पर नैरेटर की नही।
चैलेंज से जुड़ी कविता नहीं है ये, नरेटर स्पष्ट नहीं है।
कविता अच्छी है। स्टोरी दिखती है और मैसेज भी बढ़िया है। जिनका कोई नहीं होता उनका भगवान भी नहीं होता और भगवान के घर मे भी उनके लिए कोई जगह नही है।
दृश्य अच्छे हैं। छोटे-छोटे डॉयलॉग का अच्छा इस्तेमाल है (तनिक और समय दे दे साहिब…)
नामों के चुनाव स्वभाविकता है। लेकिन पात्रों की संख्या गड़बड़ हो गई है।
कई हिस्से अच्छे बने हैं। शब्द चयन अच्छा है “खदेड़ा” मिन्नतें etc। खासकर रूपा के रोने के कारणों की तलाश काव्यत्मक है :
रोये जा रही थी / अब तक रूपा/ भूख से/शायद अंधेरे से!/ नहीं! नहीं!/ ठंड से।
इसी तरह कुत्तों को भी उनके फुटपाथ पर रहने से आपत्ति जताने वाला हिस्सा अर्थपूर्ण है।