एक दिन और ढल गया – नेहा (हाना)

समझाता हूं
अपने आप को
मिलू न इस बार उससे
पता है मुझे भी और
उसे भी
एक दिन और ढल जायेगा
दोनों का
बावले पन से भरी
उसकी आँखें
जब निहारती मेरी आँखों को
बच्चों की तरह
जिसमें झलकता दूर जाने का डर
या फिर घनिष्ठ लगाव
तो थम जाती कई बातें
बोलता एक ही बात
बस न
इतना क्यो घूर रही हो?
आती है शर्म
चुटकी भर कहता उससे
मैंने क्या किया?
मैंने तो कुछ नहीं किया!
बन जाती कुछ भोली सी
जैसे पकड़ी गई हो
चोरी करते
कुछ रुक कर कहती
वहीं बात
जो दर्द से भरते
उसके लबों को
और सुई से चुभते
कानों में मेरे
जाना पड़ेगा
मैं भी कह देता
वही थके हुए
शब्द ठीक है
मिलोगी फिर कब?
कह देती जब गलती से
कल मिलते है
बन जाती कई लिस्टे
सवालों की
कल !!!
कहा?कितने बजे!
लगाओगी क्या ?
इस बार बहाना
जानता था
माहिर है मैं और वो
इन कामों में
पेपर देने
दोस्तों से बुक लेने
तो कभी लाइब्रेरी में
पढ़ने के बहाने आ जाते
घड़ी की सुईयों पर
न जाने कब से
टिकी रहती
उसकी नजरे
और कहती
कुछ उदास होकर
तीन बज गए
रुक जाओ थोड़ी देर और
ये ही बात दोहराता
जब जब होती मुलाकात
जानता था
इसका जबाब भी
न ही होगा
फिर भी न जाने क्यों?
उसके जबाब का इंतजार रहता
जैसे इंतजार हो
पतझड़ के मौसम में
पत्तो के आने का
लेट हो गई न
तो खैर नहीं आज
खूब पड़ेगी डाट
जाती हूं
जाने के बाद भी न जाने
कितना कुछ छोड़ जाती
मेरे पास
भूल जाती हरबार
अपनी गंध ,रूप -रंग, बातें
और यादों को
ले जाना संग

अचानक से
फिर बोल पड़ती
गलती से बोल दिया कल
फिर मिलेंगे
मैं भी झूठी हँसी हँस कर
कह देता
हा फिर मिलेंगे
पर कब मिलेंगे?
ये कहना मुश्किल है
उसके लिए भी और
मेरे लिए भी !

,

5 Replies to “एक दिन और ढल गया – नेहा (हाना)”

  1. कविता में दृश्य अच्छा बना है, लेकिन कविता का नैरेटर कंफ्यूज लगता है, जैसे वह खुद नहीं जानता कि वह क्या चाहता है। भाषा भी अच्छी है, लेकिन कई जगह पर अतिरिक्त शब्द का इस्तेमाल लगता है। ऐसी जगहों पर लगता है जैसे शब्द डाल दिये गए लेकिन अर्थ पर ध्यान नहीं दिया गया। हालांकि कुल मिलाकर कविता ठीक ही लगती है और दृश्य पाठक तक संप्रेषित भी होता है।

  2. पढ़ कर लगा कि इसे और काव्यात्मक बनाया जा सकता था। कई वाक्य गद्यात्मक हो गए हैं। प्रेमियों के मिलने की चाह, बैचेनी और अलग होने के दर्द को दिखाया है। मिलने के लिए कितने बहाने, कोशिश, झूठ बोलना पड़ता है ये भी दिखाया है। कविता दृश्यात्मक है।
    “भूल जाती हर बार
    अपनी गन्ध, रूप-रंग, बातें
    और यादों को ले जाना संग”
    ये काफी अच्छा लगा।

  3. न मिल पाने की कसक , समाज का डर , घर से बहाने से निकलना etc दिखाया है । नैरेटर अपने आप को समझा रहा है कि न मिलु उससे पर न मिलने का कारण स्प्ष्ट नही किया जैसे जाति , किसी के देख लेने का डर । मिलने पर खुश होते हैं तो डर क्यों कि ढल जाएगा एक दिन और? ये डर तो है शायद की आगे जीवन मे साथ नही रह पाएंगे । विषय अच्छा है , प्रेम में साथ न हो पाने की कसक है।
    *जैसे इंतज़ार हो
    पतझड़ के मौसम में
    पत्ते आने का *
    ये लाइन अच्छी हैं
    नैरेटर खुद मौजूद हैं यहाँ

  4. अभ्यास के लिहाज अच्छी प्रेम कविता है। प्रेमियों की विवशता और मिलने की उनकी उत्कंठा को छोटे-छोटे प्रसंगों के जरिए ठीक से उठाया है।
    इन तरह की कविताओं में अगर संभव हो तो दो पहलुओं पर ध्यान देना चाहिए।
    1- आम मध्यवर्गीय प्रेम से अलग भी कुछ है इस प्रेम में, जो उन दोनों को एक दूसरे के लिए कुछ जरूरी बनाता हो।
    2- परिवार के सामान्य विरोध के अलावा संभव हो तो कविता में मानवीय संबन्धों का या पितृसत्ता का कोई पहलू उभारा जाए। कोई नई बात समझ मे आए।

    फिर भी ऑब्जर्वेशन अच्छा है और छोटे छोटे वाक्यों में सुंदर ढंग से तो लिखा ही है।।

  5. कविता अच्छी है। दो प्रेमियों के मिलने और बिछड़ने के साथ, दुबारा मिलनता होगा कि नहीं इसके दुख को दिखाया गया। जो अच्छा है। भाषा अच्छी है।शुरुआत में थोड़ी सी कविता रहस्य लेते हुए आगे बढ़ती है फिर अंत में थोड़ी सी ढीली पड़ जाती है। कविता के बीच में एक जगह शब्द गलत टाइप है।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *