बंटवारा – उषा

हो गया था
हर चीज का बंटवारा।
एक चम्मच से लेकर जेवरात तक
आपस में ही लड़ पड़े थे।
लेने को बाप की संपत्ति।
घर के साथ ही हुआ था
दादा का भी बंटवारा।
कई दिनों तक
हुआ था खूब झगड़ा
कौन रखेगा बाप को संग।
हमारे हिस्से आया
दो कमरे का घर।
कर दिया था पापा ने भी मना
साथ रखने से उनको।
आ जाते थे कभी-कभी
इतनी जिल्लतें सहने के बाद भी
मिलने अपने बेटे और पोते से।

सुनाते थे जब दादा
मुझको कहानियां।
झपट लेते थे पापा मेरा हाथ
“बिगाड़ दोगे मेरे बच्चों को”
“पर मुझे तो पसन्द है
सुनना कहानियाँ”

इतने में जड़ दिया था
गाल पर थप्पड़।
रह गए दिल मसोसकर
कुछ न बोल पाए थे दादा।
चेहरे पर छाई झुर्रिया
आंखों में लिए उदासीनता
ताकते रहे थे बस एकटक।
नहीं बची थी बूढ़े हाथों में ताकत
कि कर पाते
अपने बेटे का विरोध।
ना ही मुझमें थी इतनी हिम्मत
कि ले पाता दादा का पक्ष।

आंखों से दिखने लगा था कम
नहीं करा पाते थे मुझको होमवर्क
कहा था डॉक्टर ने
खर्च पड़ेगा थोड़ा ज्यादा।
हो गया है मोतियाबिंद।
नहीं हुई किसी भी बेटे की हिम्मत
कि बनवा सके आंख।
कितना कहा था मैंने
बनवा दो एक नया चश्मा।
नहीं पढ़ा जाता उनसे अब अखबार
लग गयी थी एक दिन
जोरो से ठोकर।
बढ़ गयी जब ज्यादा दिक्कत
सब भाइयों ने बैठकर साथ
घण्टों किया विमर्श।
आपस मे इकठ्ठा कर पैसा
जब जाकर बनवाई थी आंख।

उस वक़्त बस
रोये जा रहे थे दादा।
“अरे क्या हुआ?
बन जायेगा अब तो नया चश्मा।”

लेते हुए लंबी आंह…
“हां बेटा, बन तो रहा ही है”
जब भी आते थे वो घर
खूब खेलते हम साथ में।
पूछा करता था मैं पापा से
पहले जैसे रह क्यों नहीं सकते
वो अब हमारे साथ?
कितना अच्छा होता
खाते सब बैठकर एक साथ।
खिलाया करते थे आप
दादा को निवाला
अपने हाथों से।
पर अब डांटते हैं
मुझको ही खिलाने से।
सुनते ही हो जाते गुस्सा।
“मुश्किल है इतनी महंगाई में
पाल सकना तुमको ही।”

पर अफसोस
हो गयी थी साथ ही उनको
अब सांस की बीमारी।
रखा जाता था उनसे मुझे दूर।
झिड़क देते थे पापा
उनको बात-बात पर।
“खुद तो मरोगे ही
हमारे बच्चों को भी मारोगे”

लगता था बुरा
दिया जाता था जब
हमसे अलग खाना।
रखे जाते थे
बर्तन उनके अलग।
थी मनाही हमसे मिलने की
पर छिप-छिप कर
दे दिया करता था मैं
अपने हिस्से की चीज़ें।
दादा भी छिपा कर सबसे
दे दिया करते थे
रुपया या दो रुपया।

सोचता था मैं भी

नहीं रखूंगा पापा को साथ।
बदल चुके थे अब हालात
हो गया था आना बंद
उनका हमारे यहां।
रहने लगे थे गुमसुम।
खोए रहते थे
न जाने किन ख्यालों में।
जकड़ लिया था जैसे
बहुत सी बीमारियों ने।
उसी तरह चारपाई ने,
और बेटों के कहे शब्दो ने।

5 Replies to “बंटवारा – उषा”

  1. कविता का नैरेटर एक बच्चा है, लेकिन उसकी बातों में बच्चे का गुण नहीं दिखता। भाषा बहुत काव्यत्मक है, लेकिन डिटेल्स कहानी की तरह आए हैं, यानी एक्स्ट्रा सोचने के लिए कोई स्पेस नहीं है। भाषा में काव्यात्मकता अधिक हो जाने से पढ़ते समय बाधा महसूस होती है और पंक्तियां जैसे टूट टूट जाती हैं। लास्ट वाले पैरा में सोचता था मैं और बदल चुके हैं हालात का मेल नहीं बन पाता। हालांकि कविता यथार्थपरक है।

  2. कविता वास्तविकता को दर्शाती है!
    कविता कम कहानी ज्यादा लगती है बात सीधी सीधी कह दी गई है! इसमें जो पोता है उसको विरोध करने वाला भी दिखा दिया है कि मैं भी नहीं रखूंगा पापा के साथ जबकि उसको छोटा दिखाया है जिसके कारण वो बच्चा तो लगता ही नही!
    बटवारा इंसानों का होता है ये चीज को दिखाना अच्छा लगा!
    भाषा मे था का प्रयोग ज्यादा हुआ है!

  3. कविता में चीज़ों को थोड़ा डिटेल से कह दिया गया है जिससे गद्य ज्यादा है । कविता का विषय आज के जीवन , समाज से लिया गया है , बुजुर्गों की स्थिति ।
    जब तक पिता के पास धन – संपत्ति रही सब ठीक बंटवारे के बाद सब अलग ,पिता बोझ । परिस्थितियों को अच्छा दिखाया गया है , जो हम आसपास के जीवन मे देखते ही है । कविता में कम शब्दों से अपनी बात कही जानी चाहिए । था , थे शब्दो का कम use किया जा सकता था। था के प्रयोग से कविता पास्ट की बात बता रही है । नैरेटर यहाँ बीती बातों को बता रहा है

  4. कविता संवेदनशील है। यथार्थपरक भी है। शुरुआत बहुत काव्यत्मक है। स्टोरी का मजा भी है। सम्पत्ति के लिए आसक्ति ओर इंसानों से विरक्ति, दादा का पक्ष लेने पर थप्पड़ और आंख बनवाने के लिए घंटों विमर्श ये सब कविता के संवेदनशील हिस्से हैं।
    दादा के साथ बचपन का एकाध संस्मरण जोड़ना चाहिए तो कविता और मार्मिक बन जाएगी।
    इस कवि की कविताएं लास्ट में फास्ट भागने लगती है 🙂
    स्टोरी में से कम प्रभावशाली चीजों को घटाया जाता तो कविता कसी हुई लगती।
    नरेटर पृरुष नहीं, बच्चा है, बच्ची भी हो सकती थी, उसका जेंडर वर्णन पर कोई विशेष फर्क नहीं डालता।

  5. कविता बहुत ही मार्मिक और यथार्थपरक है। परिवार में लोग कैसे बदल जाते है या फिर घर में बुजुर्ग लोगों के साथ कैसा व्यवहार किया जाता है ये बढ़िया से दिखाया गया है। भाषा अच्छी है। शुरू से अंत तक कविता जुड़ी रहती है। बस इसमें जो पुरुष नरेटर है वो यह सब सही नहीं मानता उसके बाद भी खुद ऐसा अपने पिता के साथ करने को सोचता है ये अजीब बात लगी।

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