अपना घर

कहा करते थे आप
हूँ मैं इस घर की बेटी
बराबर बेटों के ही
है तुम्हारा भी
इस संपति में अधिकार।
अब बोल रहे हैं आप
लौट आओ अपने घर
चुका दूंगा मैं एक पाई-पाई।
और कर लो शादी
वही होगा तुम्हारा 
असली घर-परिवार…
छोड़ दो पढाई
और करो सास की सेवा
खिलाओ सबको 
मजेदार सब्जी
और वही कम मिर्च की मच्छी
जो खिलाती रही हो 
आज तक तुम मुझको।
होगी धूम धाम से शादी
करेंगे खर्च 15 लाख
साथ ही देंगे
तुम्हारे हिस्से की संपति
और चार पहिये की गाड़ी…
आखिर 
इकलौती बेटी हो तुम मेरी
बस….
कोई ब्याह ले जाये
अब तुमको।

संपति में अधिकार?
इकलौती बेटी?
पर पापा… 
मुझे एक बात बताइए
एक भाई ने
पकड़ बालों का जूड़ा
मार भगाया था नीचे से
दूसरे ने भगाया ऊपर से
क्या तब भी थी मैं 
इस घर की बेटी???
याद है मुझे 
अब भी वो दिन
जब टहल रही थी मैं छत पर
तो कैसे अपशब्द बोल 
भगा दिया था 
भाई ने वहां से
देने पर जवाब 
उतार ली थी
पैर में से चप्पल
तब आप कहाँ थे?
क्या तब भी था 
ये मेरा घर?
जब तरस गयी थी मैं
देने को पौधों में पानी
देखने को सूरज
सुखाने को छत पर कपड़े!
तरस गयी थी मैं
निकलने को इस चारदीवारी से।

नहीं भूली हूँ मैं
जब छोड़ दिया था 
आपने भी ये साथ
इतना रोने के बाद भी 
नहीं दी थी
मेरे एडमिशन की फीस।
आप ही बताइए
कैसे लौट आऊं वहां से
मिलता है जहाँ मुझे 
इतना प्यार और अपनापन
जहां घूमती हूँ मैं 
बेख़ौफ़ उन सड़को पर
बैठ अपने कमरे में
तलाशती हूँ उन सपनो को
अब कोई नहीं कहता
घर मे दोस्तो को क्यों लाई?
इतना लेट क्यों आयी?
सफाई क्यों नहीं की
खाकर बर्तन नहीं रखी।
ऐसे कपड़े क्यों पहनी?
या आज क्यों नहीं नहाई?