पुल पर खड़ी लड़की

चाय की एक चुस्की लेकर
मैंने कप बगल में रखा
व्यस्त था दुकानदार
अपने पकौड़ों में
और सिवाय मेरे
नहीं था कोई दुकान पर।
लहरा गया पीला दुपट्टा
पुल पर खड़ी लड़की का
और रौनक आ गई
मेरे चेहरे पर।
गाड़ियां भाग रही थीं
पूरी रफ्तार से
और मुसाफिर
एक दूसरे से अनजान
बस चले जा रहे थे।
नहीं था मेरी
या उसकी तरफ
किसी का भी ध्यान।
खड़ी थी वह
कोई डेढ़ सौ कदम दूर
पर सड़क के दूसरी ओर।
नजर मिल चुकी थी हमारी
और तुरंत ही घूम गई वह
ऐसे ही घूम जाती हैं लड़कियां
प्रेम में पड़ने के ठीक पहले
पता था मुझे यह रहस्य।
एक हाथ खम्भे पर टिकाए
देखने लगी वह नदी का बहाव।
शायद इंतज़ार था किसी का
पर जाहिर लगा उसकी अदा से
कि इंतज़ार
प्रेमी का ही क्यों न हो
वो कर सकती है दुबारा प्रेम।
हिलोरें मार रही थी
उधर नदी
और इधर मेरी भावनाएं।
वह मुड़ी
और इस बार जरा देर तक
देखती रही मुझे
जैसे चाह रही हो पहचानना
हल्का सा इशारा कर दिया था मैंने
मुंह उठाकर
और अचकचा कर
सामने चलती गाड़ियां देखने लगी वह।
अशोभनीय था
बिना स्पष्ट इशारे के उसके पास जाना
तो बैठा रहा मैं
कुछ देर को खो सी गई थी
गाड़ियों के घूमते पहियों में
शायद सोचने लगी थी कुछ
फिर देखने लगी
दोनों किनारों पर लगे पेड़
और फिर से बढ़ी हुई नदी।
उसने फिर देखा मुझे
जैसे संदेह था उसे
पहली ही मुलाकात में
मेरे आगे बढ़ने पर।
पर लुभा लिया था उसने
और यकीन था मुझे
कि दे बैठेगी दिल वह भी
अभी ही तो कदम रखे हैं उसने
जवानी की दहलीज पर
और महसूस किया है मुझे
अपने करीब
इतनी देर तक।
उससे मिलने को तैयार
उठ खड़ा हुआ मैं
और जैसे भांप लिया हो उसने
सिहर गई थी वह
जैसे सिहर जाती है कोई भी लड़की
पहले स्पर्श से ठीक पहले।
अचानक ही
लगा दी छलांग उसने
उफनती नदी में
बज गए कई हॉर्न एक साथ
दौड़ पड़े थे लोग
जड़ हो गए थे मेरे पैर
भीड़ इकट्ठी थी ठीक वहीं
जहां लहरा रहा था दुपट्टा
थोड़ी देर पहले।
पसर गया था सन्नाटा कुछ देर को
पर छंटने लगी थी अब भीड़
जोश और जवानी जैसे शब्द
पड़े मेरे कानों ने
मगर सन्न था मैं
टटोल नहीं पा रहा था
खुद अपने मनोभाव।

दो महीनें एक लिफाफा – नेहा

कहा करती थी हमेशा

ले चलना भैया 

अपने यूनिवर्सिटी में

पढ़ते जहां हो तुम

हजारों लोगों के बीच

करते हो दिन-रात 

सवालों पर विचार और विमर्श

दिखाना सब कुछ 

वो गली वो सड़के 

लिख चार्ट पेपर पर जहां

मांगते फिरते “आजादी”

किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की 

चाहती हूँ मैं भी 

उठाऊ उनके लिए आवाज

लड़ झगड़कर मां पिता से 

लेता ही आया आखिर 

बहन को साथ दिल्ली

करने को तैयारी

एम.ए के इंट्रेंश के लिए 

मिलाया दोस्तों से

घुमाया बहुत जगहों पर

खुश बहुत थी वो 

चाहती थी और घूमना लेकिन

आ गया था करीब एग्जाम 

कह दिया था अपने दोस्त से

पढ़ा दे बहन को

देखकर पहले ही दिन

झुका ली थी पलकें उसने

गया वो भी कुछ शर्मा सा

चलने लगी थी जोर शोर से

पढ़ाई के साथ-साथ पत्र व्यवहार

मिलने लगे थे दोनों छुप-छुपकर 

मुस्कुराकर एक दिन

कह दिया पता है सब

डरो नहीं मुझसे

चाहोगी जो वही होगा

ले लो एडमिशन यहीं

रहना फिर साथ दोनों 

रख कंधे पर सर रोने लगी कहा,

नहीं भैया तुम्हारे जैसा कोई

बीते ही थे कुछ दिन पेपर के

आने लगा घर से बार- बार

मां पिता का फोन लेकिन 

टाल रहा था मैं

जाने से दो दिन पहले

खूब घूमे थे हम 

आ गया अब दिल्ली

पहुँचाकर बहन को

दो महीनों तक लगातार

भेजते रहे दोनों पत्र

मिल गया दराज से 

एक समय पिता को

कुछ फ़ोटो लेटर के साथ

मच गया कोहराम घर में

खड़े दरवाजे पर मैं और वो

देख रहे थे

पड़े जमींन पर उल्टी चप्पलें और

रखे कोने में सरकंडे

कुछ टूटी चीजें, बिखरी तस्वीरें 

छोटे-छोटे टुकड़ों में कागज के पन्ने

दिख रही थी दूसरी तरफ

परछाईं दीवार पर 

बिल्कुल सीधी और ठहरी हुई

लंबी सी किसी चीज की….

थमा गया इसी बीच कोई

लगे स्टम्प का लिफाफा

रुक गई थी नजरें

उस एक शब्द पर….

बदनाम पुरुष – उषा

बदनाम थे सब पुरुष
कुछ लोगों के चलते।
मैं कहता हूँ 
क्या गलती है उनकी?
करते वक़्त काम
जैसे अकड़ जाती है 
स्त्रियों की कमर
उसी तरह अकड़ जाती है 
हमारी भी रीढ़।
पर तुम कैसे समझोगे
घूमते हो करके छाती चौड़ी
दिखाते हुए सीने के बाल
कहते हो खुद को मर्द
और छेड़ते हो लड़कियां 
सड़को के पार।
कभी आकर देखो हम मजदूरों को
झुके-झुके जब भरनी पड़ती है बालू
या लगाना पड़ता है पोछा
ढोनी पड़ती है कमर पर
ईंटो की कतार
तब कैसा होता है अहसास।
छूकर देखो कभी ये हाथ
मिल जाएंगी जिन पर
फफोलों के साथ अनेकों गांठें भी।
नहीं हैं हम अलग स्त्रियों से
बना दिया था इस समाज ने
हमें भी उनकी ही तरह।
पेट भरने की खातिर
खींचना पड़ता है रिक्शा
और बीनना पड़ता है कूड़ा।
कड़कती धूप में
लिए हाथ में कटोरा
बैठी रहती है सड़क किनारे
गोद मे लिए बच्चा।
कर लेते हो कैसे तुम
क्या नहीं दिखती 
रोती हुई वो मासूम आंखे?
गिड़गिड़ाते हुए
मांगती हैं जब 
बचाने को इज्जत की भीख।
देंखना चाहिए तुम्हें 
दुत्कार दिया जाता है जब
मांगने पर रुपया या दो रुपया।
कभी देखी है
उन आंखों में भूख की तड़प
जो निहारती हैं 
लिए आशा की उम्मीद
पर अफसोस…
कुछ मर्दों को दिखती है
सिर्फ और सिर्फ 
अपनी ही भूख की तड़प।

मैं अच्छा लिखता हूं – नेहा (हाना)

सब कहते है
लिखता हूं मैं
अपनी कलम से
हताश ,निराश लोगों की
आत्मकथा
दिख जाती फुटपाथ पर
हाथ मे कटोरा लिए
भूखी आँखे
जिसको इंतजार रहता
मुसाफिरों के आने का
जो डाल जाते
छन से
कटोरे में दो -चार पैसे
हो जाता जुगाड़ फिर
पूरे दिन का
इसी तरह से बुनता
कई शब्द
ताकि दिखा सकू
समाज का द्वंदात्मक अतीत
वर्तमान गलाकाट संस्कृति
और थका -हारा भविष्य

लेकिन
डगमगाने लगती कलम मेरी
लिखने को बैठता जब
अपनी आत्मकथा
छिप जाते कई शब्द
डायरी के बीच
जिसकी होती नही मुलाकात
कभी पाठकों के बीच
जो बच जाते
वहीं गढ़ डालता कविता में
बाहर के शोषितों से
लड़ जाती कलम मेरी
इतनी सांसे होती नहीं
की लड़ सके
घर के शोषितो से कभी
चीखती चिल्लाती पड़ोस की
पुष्पा दीदी को देख
भावुक हो जाती
रहती तैयार हमेशा
काफी कुछ कहने को
लेकिन
अपने अधूरे प्रेम,
आंसू और चीखों को
पापा की फटकार
माँ के अंधकारमय जीवन को
केवल
उतार पाती डायरी के पन्नो पर
रखता उसे
चौकन्ना होकर अलमारी में
कपड़ो के नीचे
ताकि दिख न जाये
किसी को
दिख गई अगर कभी
किसी को
तो जो सांसे है
खिंच ली जायेगी
मेरी कलम की
सही सलामत रखता हूं उसको
देकर अपनी
आत्मा का बलिदान
इसलिए
सब कहते है
मैं अच्छा लिखता हूं

गरीबों का भगवान – उषा

हाथ पकड़ कर
खदेड़ा जा रहा था
बाबा को जब।
की थीं कितनी मिन्नतें 
माँ ने उस वक़्त।
तनिक और समय दे दो साहिब
चुका देंगे एक-एक पाई।
बेचना पड़ जाए
चाहें मुझे खुद को ही
पर नहीं करेंगे इस बार निराश
बस एक 
सिर्फ एक आखिरी मौका…
वो हट्टा-कट्टा आदमी
आंखों में ओढ़े 
हैवानियत की चादर,
निकाल फेंका था 
कूड़े की भांति
हम सबको घर से बाहर।
उफ़्फ़फ़…
शायद कूड़ा ही थे 
सबके लिए हम।

माँ को बिलखते देख
कितनी रोई थी रूपा।
सीने से चिपकाए
और पकड़े चिंटू की उंगली
चल पड़े थे हम
अपने भगवान के भरोसे।
ठिठुरते,
घने अंधेरे को चीरते हुए।
कहा करती थी माँ
“नहीं होता कोई जिनका
उनका होता है भगवान”
ढूंढ रहे थे चारों और
आंखों में लिए
हम आशा की उम्मीद।
कि भेजेंगे जरूर
भगवान एक फरिश्ता।
पर शायद सो रहा था
हम लोगों का भगवान।

रोये जा रही थी 
अब तक रूपा।
भूख से?
शायद अंधेरे से!
नहीं! नहीं!
ठंड से।
उड़ा दिया था माँ ने उसको
उतारकर अपने सिर का पल्लू।
घनघोर अंधेरे में
दिख रही थी
सड़को के किनारे 
जलती हुई लाइट।
दे रही थी सुनाई आवाज
कुत्तों के भौकने की लगातार।
नहीं चाहते थे शायद वो भी
कि ठहरे हम फुटपाथ पर।

भटकते हुए जा पहुँचे 
एक मंदिर के बाहर।
ले आया था चिंटू 
कोने में पड़ी पत्तल से
उठाकर अधखाया लड्डू।
लिटाते हुए रूपा को
मंदिर के फर्श पर
कर रही थी माँ कोशिश
सुलाने की
थपकी देकर लगातार।

कानों में जब पड़ी आवाज
“उठो-उठो आ जाते हैं
पता नहीं कहाँ-कहाँ से”
लग गयी थी बैठे-बैठे
शायद रात को आंख।
उठ गए थे
हड़बड़ाकर हम सब।
हो गयी थी सुबह।
पर इस बार
कर रही थी माँ कोशिश
रूपा को उठाने की लगातार।

हर बरसात में – नेहा (हाना)

होने वाली है
मूसलाधार बारिश
दो -चार दिनों
ऐसी खबरें सुनते ही
बाबा और मैं
लग जाते अपने अपने
कामों में
बन जाते खुद साइंसटिस्ट
करने लगते कई प्रयोग
भरते
मिट्टी से बनी दीवारों की
दरारों को
जिसमे पलते कई जीव
तो कभी करते मरम्मत
टूटी टीनो की
ढकने लगते त्रिपाल से
तो कही टीनो के टुकड़ो से
ताके बचाया जा सके खुद को
अगला प्रयोग करने के लिए
और करता जुगाड़
कई सामानों को
इधर से उधर रखने का
इस तरह
कुछ ख़तरे कम हो जाते
बचा पाते कुछ चीजों को
सीलन से
और जंग लगने से
पर बन जाते खुद शिकार
मुश्किल होता
सरकाने में चारपाई को
वजह नही की थी भारी
थी वजह जगह की
इसलिए आता हमारे हिस्से में
टपकती छत का हिस्सा
हर बरसात में !

आधी उम्र बीत गई
बाबा की प्रयोगों में
और आधी
डरते -डरते ऐसा डर जो
होता
मानव और प्रकृति के बीच
और अब बीतने वाली थी
मेरी भी उम्र
कई चिंताओं ,संघर्ष औऱ डर के बीच
क्योंकि
इस बारिश में घर की
दीवारे कुछ खिसक सी गई
धस चुके थे कई कोने
पानी के अंदर
खा चुकी थी काई हर
कोने को
लिपट गई सीलन
हर कपड़ो पर
सही सलामत बचे
केवल
बाबा के प्रयोग
जिसका इस्तेमाल करता हूं मैं
जीने के लिए
हर बरसात में

एक दिन और ढल गया – नेहा (हाना)

समझाता हूं
अपने आप को
मिलू न इस बार उससे
पता है मुझे भी और
उसे भी
एक दिन और ढल जायेगा
दोनों का
बावले पन से भरी
उसकी आँखें
जब निहारती मेरी आँखों को
बच्चों की तरह
जिसमें झलकता दूर जाने का डर
या फिर घनिष्ठ लगाव
तो थम जाती कई बातें
बोलता एक ही बात
बस न
इतना क्यो घूर रही हो?
आती है शर्म
चुटकी भर कहता उससे
मैंने क्या किया?
मैंने तो कुछ नहीं किया!
बन जाती कुछ भोली सी
जैसे पकड़ी गई हो
चोरी करते
कुछ रुक कर कहती
वहीं बात
जो दर्द से भरते
उसके लबों को
और सुई से चुभते
कानों में मेरे
जाना पड़ेगा
मैं भी कह देता
वही थके हुए
शब्द ठीक है
मिलोगी फिर कब?
कह देती जब गलती से
कल मिलते है
बन जाती कई लिस्टे
सवालों की
कल !!!
कहा?कितने बजे!
लगाओगी क्या ?
इस बार बहाना
जानता था
माहिर है मैं और वो
इन कामों में
पेपर देने
दोस्तों से बुक लेने
तो कभी लाइब्रेरी में
पढ़ने के बहाने आ जाते
घड़ी की सुईयों पर
न जाने कब से
टिकी रहती
उसकी नजरे
और कहती
कुछ उदास होकर
तीन बज गए
रुक जाओ थोड़ी देर और
ये ही बात दोहराता
जब जब होती मुलाकात
जानता था
इसका जबाब भी
न ही होगा
फिर भी न जाने क्यों?
उसके जबाब का इंतजार रहता
जैसे इंतजार हो
पतझड़ के मौसम में
पत्तो के आने का
लेट हो गई न
तो खैर नहीं आज
खूब पड़ेगी डाट
जाती हूं
जाने के बाद भी न जाने
कितना कुछ छोड़ जाती
मेरे पास
भूल जाती हरबार
अपनी गंध ,रूप -रंग, बातें
और यादों को
ले जाना संग

अचानक से
फिर बोल पड़ती
गलती से बोल दिया कल
फिर मिलेंगे
मैं भी झूठी हँसी हँस कर
कह देता
हा फिर मिलेंगे
पर कब मिलेंगे?
ये कहना मुश्किल है
उसके लिए भी और
मेरे लिए भी !

,

दर्द – नैंसी

 पसलियों के दर्द से 

कराह रही थी 

शरीर संग आत्मा भी 

आंखों में सूजन 

होठों पर कपकपाहट 

हाथों – पैरो में नीलापन

अविश्वास, ताने ,गलियों की बौछार 

बिना दोष बनी मुज़रिम 

अपराध जो किया नही 

देखा था पड़ोसी से करते बात 

मुस्कुरा दी थी देख उसके 

मासूम पिल्ले 

घसीटकर ले गया घर 

था नशे में धुत्त 

घड़ दी कहानी अवैध संबंध की 

न रखी बच्चों , पड़ोसियों के आगे शर्म 

गर्दन , कमर पर पड़ी लाते 

बारी बारी

न था मौका , पेश करे सफाई अपनी 

न था मायके का सहारा 

करे विरोध , निकले नरक से 

आत्महत्या के ख्याल के आगे 

अड़ा था बच्चों का जीवन 

अगली सुबह बन जाता 

रात का राक्षस , भलामानस 

पड़ोसियों संग था दर्शक मैं भी 

आये दिन के झगड़ो का 

न था हथियार ,सिवा कलम के 

करु मदद असंख्यों की…

बंटवारा – उषा

हो गया था
हर चीज का बंटवारा।
एक चम्मच से लेकर जेवरात तक
आपस में ही लड़ पड़े थे।
लेने को बाप की संपत्ति।
घर के साथ ही हुआ था
दादा का भी बंटवारा।
कई दिनों तक
हुआ था खूब झगड़ा
कौन रखेगा बाप को संग।
हमारे हिस्से आया
दो कमरे का घर।
कर दिया था पापा ने भी मना
साथ रखने से उनको।
आ जाते थे कभी-कभी
इतनी जिल्लतें सहने के बाद भी
मिलने अपने बेटे और पोते से।

सुनाते थे जब दादा
मुझको कहानियां।
झपट लेते थे पापा मेरा हाथ
“बिगाड़ दोगे मेरे बच्चों को”
“पर मुझे तो पसन्द है
सुनना कहानियाँ”

इतने में जड़ दिया था
गाल पर थप्पड़।
रह गए दिल मसोसकर
कुछ न बोल पाए थे दादा।
चेहरे पर छाई झुर्रिया
आंखों में लिए उदासीनता
ताकते रहे थे बस एकटक।
नहीं बची थी बूढ़े हाथों में ताकत
कि कर पाते
अपने बेटे का विरोध।
ना ही मुझमें थी इतनी हिम्मत
कि ले पाता दादा का पक्ष।

आंखों से दिखने लगा था कम
नहीं करा पाते थे मुझको होमवर्क
कहा था डॉक्टर ने
खर्च पड़ेगा थोड़ा ज्यादा।
हो गया है मोतियाबिंद।
नहीं हुई किसी भी बेटे की हिम्मत
कि बनवा सके आंख।
कितना कहा था मैंने
बनवा दो एक नया चश्मा।
नहीं पढ़ा जाता उनसे अब अखबार
लग गयी थी एक दिन
जोरो से ठोकर।
बढ़ गयी जब ज्यादा दिक्कत
सब भाइयों ने बैठकर साथ
घण्टों किया विमर्श।
आपस मे इकठ्ठा कर पैसा
जब जाकर बनवाई थी आंख।

उस वक़्त बस
रोये जा रहे थे दादा।
“अरे क्या हुआ?
बन जायेगा अब तो नया चश्मा।”

लेते हुए लंबी आंह…
“हां बेटा, बन तो रहा ही है”
जब भी आते थे वो घर
खूब खेलते हम साथ में।
पूछा करता था मैं पापा से
पहले जैसे रह क्यों नहीं सकते
वो अब हमारे साथ?
कितना अच्छा होता
खाते सब बैठकर एक साथ।
खिलाया करते थे आप
दादा को निवाला
अपने हाथों से।
पर अब डांटते हैं
मुझको ही खिलाने से।
सुनते ही हो जाते गुस्सा।
“मुश्किल है इतनी महंगाई में
पाल सकना तुमको ही।”

पर अफसोस
हो गयी थी साथ ही उनको
अब सांस की बीमारी।
रखा जाता था उनसे मुझे दूर।
झिड़क देते थे पापा
उनको बात-बात पर।
“खुद तो मरोगे ही
हमारे बच्चों को भी मारोगे”

लगता था बुरा
दिया जाता था जब
हमसे अलग खाना।
रखे जाते थे
बर्तन उनके अलग।
थी मनाही हमसे मिलने की
पर छिप-छिप कर
दे दिया करता था मैं
अपने हिस्से की चीज़ें।
दादा भी छिपा कर सबसे
दे दिया करते थे
रुपया या दो रुपया।

सोचता था मैं भी

नहीं रखूंगा पापा को साथ।
बदल चुके थे अब हालात
हो गया था आना बंद
उनका हमारे यहां।
रहने लगे थे गुमसुम।
खोए रहते थे
न जाने किन ख्यालों में।
जकड़ लिया था जैसे
बहुत सी बीमारियों ने।
उसी तरह चारपाई ने,
और बेटों के कहे शब्दो ने।