मैं अच्छा लिखता हूं – नेहा (हाना)

सब कहते है
लिखता हूं मैं
अपनी कलम से
हताश ,निराश लोगों की
आत्मकथा
दिख जाती फुटपाथ पर
हाथ मे कटोरा लिए
भूखी आँखे
जिसको इंतजार रहता
मुसाफिरों के आने का
जो डाल जाते
छन से
कटोरे में दो -चार पैसे
हो जाता जुगाड़ फिर
पूरे दिन का
इसी तरह से बुनता
कई शब्द
ताकि दिखा सकू
समाज का द्वंदात्मक अतीत
वर्तमान गलाकाट संस्कृति
और थका -हारा भविष्य

लेकिन
डगमगाने लगती कलम मेरी
लिखने को बैठता जब
अपनी आत्मकथा
छिप जाते कई शब्द
डायरी के बीच
जिसकी होती नही मुलाकात
कभी पाठकों के बीच
जो बच जाते
वहीं गढ़ डालता कविता में
बाहर के शोषितों से
लड़ जाती कलम मेरी
इतनी सांसे होती नहीं
की लड़ सके
घर के शोषितो से कभी
चीखती चिल्लाती पड़ोस की
पुष्पा दीदी को देख
भावुक हो जाती
रहती तैयार हमेशा
काफी कुछ कहने को
लेकिन
अपने अधूरे प्रेम,
आंसू और चीखों को
पापा की फटकार
माँ के अंधकारमय जीवन को
केवल
उतार पाती डायरी के पन्नो पर
रखता उसे
चौकन्ना होकर अलमारी में
कपड़ो के नीचे
ताकि दिख न जाये
किसी को
दिख गई अगर कभी
किसी को
तो जो सांसे है
खिंच ली जायेगी
मेरी कलम की
सही सलामत रखता हूं उसको
देकर अपनी
आत्मा का बलिदान
इसलिए
सब कहते है
मैं अच्छा लिखता हूं

5 Replies to “मैं अच्छा लिखता हूं – नेहा (हाना)”

  1. कविता विषय, भाषा और दृश्य हर लिहाज से ठीक है। हालांकि नैरेटर को पहचानना मुश्किल होता है, उसकी उम्र और परिवार में उसकी हैसियत का अंदाज नहीं चलता। लेकिन उसका द्वंद्व वास्तविक लगता है और अपनी जिंदगी और लेखक के तौर पर उसकी भूमिका को पकड़ने की अच्छी कोशिश की गई है। ऐसे कोई समस्या नहीं दिखती, लेकिन अंत थोड़ा जटिल हो गया है, खासकर नैरेटर की स्थिति का अंदाज न होने के चलते, या शायद अंत जल्दबाजी में कर दिया गया है।

  2. ये कविता बहुत ही अच्छी लगी। काफी मैच्योर है और भाषा की पकड़ अच्छी है। इस कविता में बहुत कुछ कम शब्दों में कह दिया गया है। इस कविता में एक लेखक की जिंदगी और समाज का घिनौना रूप दिखता है। पुरुष नरेटर के अंदर उठने वाले सवालों और अंतर्द्वंद्व को अच्छे दिखाया गया है।

  3. “लिखता हूं मैं
    अपनी कलम से
    हताश ,निराश लोगों की
    आत्मकथा”
    दूसरों की लिखता है तो वो तो जीवनी हुई न तो आत्मकथा कैसे???

    “कटोरे में दो -चार पैसे
    हो जाता जुगाड़ फिर
    पूरे दिन का”

    “दो – चार पैसे ” रुपये भी नहीं? वो भी दिन भर का जुगाड़ हो जाता था। ऐसा तो मुश्किल ही देखने को मिलता होगा कि अगर कुछ रुपये मिल गए तो फिर न मांगें।

    ये बात सही है कि लेखक हो या कोई आम व्यक्ति जब अपने बारे में लिखने लगते हैं पूरा सच नहीं लिख पाते। और इसलिए उन्हें घुमा कर लिखना पड़ता है।

    उसी तरह अपनो से लड़ना भी बहुत मुश्किल होता है। कविता अच्छी है, भाषा भी ठीक है।

  4. कविता दोनों ही दृष्टियों से अच्छी है, नरेटर वाले चैलेंज के लिहाज से भी और कविता के तौर पर भी।
    नामों का अच्छा इस्तेमाल किया गया है। ध्वन्यात्मकता के लिए भी थोड़ी जगह बनाई है।
    कविता में सबसे अच्छी चीज है एक लेखक के अंतर्द्वंद्व और आत्मसंघर्ष की पकड़। जितनी आसानी से दूसरों की आलोचना की जा सकती है वैसे ही “अपनों” की नहीं।
    लेकिन लगता है नरेटर को सप्रयास पुरुष बनाया गया है जबकी भावनाएं और स्थितियां स्त्री स्वर के करीब पड़ती हैं। ‘आंसू और चीखों’ को छिपाने से भी इसका संकेत मिलता है और डायरी को अलमारी में कपड़ों के नीचे छिपाने से भी।
    कविता में कोई खास कमी नहीं दिखती।
    मजेदार बात यह है कि संस्कृतनिष्ठ शब्दों को भी बड़े अच्छे ढंग से कविता में उतार लिया गया है।

  5. दूसरों के जीवन पर लिखना आत्मकथा नही होता ।
    शायद कविता पहले के टाइम पीरियड से रीलेटिड है तभी 2 4 पैसे में पूरे दिन का काम बन जाता हो
    *समाज का द्वंदात्मक अतीत
    वर्तमान गलाकाट संस्कृति
    और थका -हारा भविष्य*
    ये पंक्तियां अच्छी लगी
    ये बात ठीक कहि गई है कि हम अपनी आत्मकथा लिखने में बहुत सी चीज़ों को नही लिख सकते क्योंकि हमारे साथ कुछ लोगो का जीवन जुड़ा होता है उनकी प्राइवेसी के लिए सब चीज़े नही लिख सकते। लेखक के जीवन की समस्याओं को दिखाया गया है । नैरेटर शायद खुद मैं ही हैं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *