दो महीनें एक लिफाफा – नेहा

कहा करती थी हमेशा

ले चलना भैया 

अपने यूनिवर्सिटी में

पढ़ते जहां हो तुम

हजारों लोगों के बीच

करते हो दिन-रात 

सवालों पर विचार और विमर्श

दिखाना सब कुछ 

वो गली वो सड़के 

लिख चार्ट पेपर पर जहां

मांगते फिरते “आजादी”

किसानों, मजदूरों और स्त्रियों की 

चाहती हूँ मैं भी 

उठाऊ उनके लिए आवाज

लड़ झगड़कर मां पिता से 

लेता ही आया आखिर 

बहन को साथ दिल्ली

करने को तैयारी

एम.ए के इंट्रेंश के लिए 

मिलाया दोस्तों से

घुमाया बहुत जगहों पर

खुश बहुत थी वो 

चाहती थी और घूमना लेकिन

आ गया था करीब एग्जाम 

कह दिया था अपने दोस्त से

पढ़ा दे बहन को

देखकर पहले ही दिन

झुका ली थी पलकें उसने

गया वो भी कुछ शर्मा सा

चलने लगी थी जोर शोर से

पढ़ाई के साथ-साथ पत्र व्यवहार

मिलने लगे थे दोनों छुप-छुपकर 

मुस्कुराकर एक दिन

कह दिया पता है सब

डरो नहीं मुझसे

चाहोगी जो वही होगा

ले लो एडमिशन यहीं

रहना फिर साथ दोनों 

रख कंधे पर सर रोने लगी कहा,

नहीं भैया तुम्हारे जैसा कोई

बीते ही थे कुछ दिन पेपर के

आने लगा घर से बार- बार

मां पिता का फोन लेकिन 

टाल रहा था मैं

जाने से दो दिन पहले

खूब घूमे थे हम 

आ गया अब दिल्ली

पहुँचाकर बहन को

दो महीनों तक लगातार

भेजते रहे दोनों पत्र

मिल गया दराज से 

एक समय पिता को

कुछ फ़ोटो लेटर के साथ

मच गया कोहराम घर में

खड़े दरवाजे पर मैं और वो

देख रहे थे

पड़े जमींन पर उल्टी चप्पलें और

रखे कोने में सरकंडे

कुछ टूटी चीजें, बिखरी तस्वीरें 

छोटे-छोटे टुकड़ों में कागज के पन्ने

दिख रही थी दूसरी तरफ

परछाईं दीवार पर 

बिल्कुल सीधी और ठहरी हुई

लंबी सी किसी चीज की….

थमा गया इसी बीच कोई

लगे स्टम्प का लिफाफा

रुक गई थी नजरें

उस एक शब्द पर….

5 Replies to “दो महीनें एक लिफाफा – नेहा”

  1. भाषा खासकर प्रूफ पर कम ध्यान दिया गया है। विषय सही है, लेकिन आधे के बाद कविता थोड़ी फंसने लगी है। अंत ठीक किया गया है लेकिन आखिरी पंक्ति अमूर्त है यानी अंदाज नहीं लगाया जा सकता है ‘शब्द’ का। असल में इस कविता को थोड़ा समय देकर और लंबा लिखने की जरूरत थी। ऐसा न होने की वजह से घटनाक्रम का घाल मेल हो गया है।

  2. भाई पढ – लिख रहा है इसलिए वह बहन की दोस्ती और पढ़ाई के लिए राजी है पर ये भी कम ही होता है “एक्ससेप्शनल केस”।।लड़को को छूट बाहर रहकर पढ़ने की पर बेटी को घर पर ही रखना भेदभाव को दिखाया है
    यहां मैं के साथ *वो* कौन है ?
    कविता का अंत कुछ स्प्ष्ट नही है , संकेतो से बताया गया है अंत।
    *दिख रही थी दूसरी तरफ
    परछाई दीवार पर
    बिल्कुल सीधी और ठहरी हुई
    लम्बी सी किसी चीज़ की*
    नैरेटर यहा स्प्ष्ट है

  3. शुरू में लगता है कि लड़की समाज के लिए कुछ करना चाहती है, पढ़ना चाहती है, अपबे साथ औरों की भी आजादी चाहती है। पर आगे जाकर सब बदल जाता है। और ये सब चीजें भूल जाती है और घूमकर, दोस्तों में ही खुश रहने लगी है। मन मे कसक भी है कि और घूमना है।
    दूसरी चीज लड़के लड़की के बीच का फर्क दिखाया गया है। पढ़ाई खत्म हो गयी तो आ जाओ घर।
    पता चल गया प्रेम का मामला है तो पिटाई ही हो गयी। जो कि अच्छा लगा कि सीधे से नहीं बताया कि कैसे पिटाई की गई है। चीजों का टूटा हुआ, बिखरी हुई तस्वीरें।
    लड़की ने प्रेम किया है जो कि गलत है जिसके चलते लगता है उसे सुसाइड करना पड़ गया।

    स्टोरी तो अच्छी बनाई गई है, भाषा भी सही लगी मुझे।

    “उस एक शब्द पर” यहां कुछ कन्फ्यूजन होने लगता है कि वो शब्द क्या है क्या वो “सॉरी” शब्द है फिर स्टैम्प लगा लिफाफा क्या है???
    ये आखिर की चार लाइन अस्पष्ट लगीं।

  4. भाषा में काव्यात्मकता के बावजूद कविता से ज्यादा कहानी है यह रचना। ज्यादातर वाक्यों में घटती जा रही घटनाओं का वर्णन है लेकिन किसी घटना का काव्यत्मक विस्तार नहीं है।। गैप नहीं है।
    अंत में कविता अचानक सांकेतिक और गैप से भर जाती है। बिंब है लेकिन हिंट सपष्ट नहीं है जिससे अंत ही धुंधला जाता है। सीधी ठहरी परछाईं रस्सी से लटकती बहन की हो सकती है, चप्पलों से पिटाई के बाद जिसने आत्महत्या कर ली है। लेकिन फिर परछाईं लंबी नहीं नहीं होती (लाइट के एंगल की वजह से)।
    खड़े दरवाजे पर मैं और “वो” में वो बहन को होना चाहिए था क्योंकि वही केंद्रीय चरित्र है, तो फिर लटकती परछाईं किसकी है? अगर “वो” बॉयफ्रेंड है जो भाई के साथ आया है तो फिर लेटर किसका आया है?
    वो एक शब्द क्या है?
    घटनाप्रधान स्टोरी ने काव्यात्मकता को काफी नुकसान पहुंचाया है।
    नरेटर पृरुष है लेकिन अपनी प्रशंसा वाली बातें बताता है। अगर वादा किया था कि जो चाहोगी वही होगा तो माँ-बाप को पहले से समझाना भी चाहिए था उसे। फिर लड़की को भी इतना भावुक नहीं होना चाहिए था। इत्यादि
    भाषा भी भाई साहब (wink)

  5. कविता में कई घटना बुनी गई है !जिसके कारण थोड़ी जटिल सी लगती है !शुरुआत अच्छा लगा पर धीरे धीरे गड़बड़ हो गई !बाकी जो भी कविता को लिखे है वो काव्यात्मकता के साथ इसे और अच्छा बना सकते है क्योंकि इसका विषय अच्छा लगा मुझे! अंत मे बहुत कुछ स्पश्ट नहीं हो पता जो कि होना चाहिए था!

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