दर्द – नैंसी

 पसलियों के दर्द से 

कराह रही थी 

शरीर संग आत्मा भी 

आंखों में सूजन 

होठों पर कपकपाहट 

हाथों – पैरो में नीलापन

अविश्वास, ताने ,गलियों की बौछार 

बिना दोष बनी मुज़रिम 

अपराध जो किया नही 

देखा था पड़ोसी से करते बात 

मुस्कुरा दी थी देख उसके 

मासूम पिल्ले 

घसीटकर ले गया घर 

था नशे में धुत्त 

घड़ दी कहानी अवैध संबंध की 

न रखी बच्चों , पड़ोसियों के आगे शर्म 

गर्दन , कमर पर पड़ी लाते 

बारी बारी

न था मौका , पेश करे सफाई अपनी 

न था मायके का सहारा 

करे विरोध , निकले नरक से 

आत्महत्या के ख्याल के आगे 

अड़ा था बच्चों का जीवन 

अगली सुबह बन जाता 

रात का राक्षस , भलामानस 

पड़ोसियों संग था दर्शक मैं भी 

आये दिन के झगड़ो का 

न था हथियार ,सिवा कलम के 

करु मदद असंख्यों की…

5 Replies to “दर्द – नैंसी”

  1. अदृश्य नैरेटर लेखक के तौर पर जो आया है अच्छा लगा!भाषा काफी मेच्योर लगती है कम शब्दों का प्रयोग कर चित्रण अच्छा किया गया है!अंत इसका काफी पसंद आया लेखक की जो मन मे कसक रहती है जिंदगी भर की कलम से लिख सकते है पर बदलाव का समय कब आयेगा ये चीज अच्छी लगी!

  2. कविता की भाषा और दृश्य सब सही हैं। यह सही कहा गया है कि नैरेटर अदृश्य है, लेकिन ठीक अंत से पहले नैरेटर घुस जाता है। नैरेटर जहां घुसता है उसके पहले का हिस्सा (यानी अदृश्य नैरेटर वाला, आत्महत्या के ख्याल के आगे तक) अच्छा लगता है। पर नैरेटर के अचानक घुसने से कविता कमजोर ही हुई है, लगता है अंत में अतिरिक्त अंश जोड़ दिया गया है। उसके बिना कविता शायद ज्यादा सही लगती।

  3. अच्छी कविता है। घरेलू हिंसा को दिखाया है साथ ही स्त्रियों पर जो पाबंदियां होती हैं उनको भी दिखाया गया है और ये सही है कि स्त्री एक ऐसे जाल में फंसी होती है कि उसके साथ कोई नहीं खड़ा होता न मायके वाले न ससुराल। न ही वो मर्जी से जी सकती है न मर ही सकती है और इसे बस दर्शक के रूप में देखते ही हैं खुद नरेटर भी देख ही रहा है बदलाव चाहता है पर कैसे हो नहीं पता। तो कलम के माध्यम से दुःखों को बयान करता है।
    भाषा तो अच्छी है पर कई जगह पढ़ने में थोड़ी दिक्क्क्त आ रही थी मुझे।

  4. कविता अच्छी है। चैलेंज वाली कविता नहीं है। सबसे ज्यादा ध्यान जाता है काव्यभाषा पर संक्षिप्त फिर भी स्पष्ट। स्टोरी भी स्पष्ट। *आंखों में सूजन/होंठों पर कंपकपाहट* के बाद सिर्फ हाथों में नीलापन ठीक लगता, हाथ-पैरों को साथ लाने से प्रवाह में बाधा आ जाती है। इसी तरह *मुस्करा दी थी देख* पर वाक्य रुक जाना चाहिए था, *उसके मासूम पिल्ले* अगले वाक्य में।
    पति के दो रूपों की स्वीकारोक्ति कविता को गंभीरता देती है।
    लेकिन अंत संतोषजनक नहीं है। पति से पिटाई खा कर अपनी बेबसी बताने वाली नरेटर कलम को हथियार की तरह कैसे इस्तेमाल करेगी? जब वह पड़ोसियों की तरह खुद अपनी यातना की दर्शक बन कर जीती है तो असंख्य लोगों की मदद कलम से कैसे करेगी?
    अंत कुछ यथार्थवादी हो तो कविता कंप्लीट हो जाएगी। घरेलू हिंसा के कारणों को और गहराई से देखा जाए तो और बढ़िया। अविश्वास पैदा करने वाली कुंठा कैसे मन मे आती है इसे ही समझा जाए तब भी अच्छा होगा।

  5. कविता बढ़िया है। दृश्य पूरे बन रहे है और भाषा काव्यात्मक है। इस कविता में पुरुष के दो व्यक्तिव को बढ़िया से दिखाया गया है। पुरुष के द्वारा स्त्री के शोषण का जिक्र अच्छे से हुआ है। अंत बढ़िया किया गया है। अंत के दो वाक्य बहुत कुछ कह देते है। कविता में मायके वाले क्यों साथ में नहीं थे। इसको नहीं बताया गया है।

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