इंसानों में भेद

हम जब भी गलियों से गुजरते हैं
पीछे-पीछे हंसते हुए,
दौड़ते हैं झुंड में बच्चे
महिलाएं छिपाती हैं आंचल में
अपनी हंसी
और करती हैं
इशारों में बात
नहीं होती जिसको खबर
हमारे आने की
मिल जाती है उनको भी सूचना
गली में लगी भीड़ से
और हमारी तालियों की गूंज से
चलते फिरते खिलौने हैं 
हम इस दुनिया के लिए
न स्त्री माना, न ही पुरुष
धकेल कर निकाल दिया गया बाहर
हमारे अपने ही परिवार से 
और इस समाज से ।

आएं हैं हम भी
तुम्हारी ही तरह
रहकर 9 महीने उस कोख में
किया होगा हमारी मां ने भी
उतना ही बेसब्री से इंतजार।
रोई होगी देखकर वो मुझे
उस दिन खूब
और कोसी होगी उसने अपनी किस्मत
क्या इसी के लिए मैं कर रही थी
इतना लंबा इंतजार?
प्रेम तो करती थी वो मुझसे
पर पता नहीं क्यों 
उसने थमा दिया मुझे दूसरों के हाथ।

नहीं देखती यह दुनिया हमें
इज्जत की नजर से
देते हैं हम तो इन लोगों को 
सदा खुश रहने की दुआ
और ये लोग करते हैं हमारा अपमान
तरह-तरह के हमें दिए गए नाम
हम कैसे रहेंगे, कैसे बोलेंगे
क्या काम करेंगे
तय कर दिया सब कुछ
इस समाज ने ।
हम भी खाते हैं
सोते हैं, बोलते हैं, गाते हैं
जब सब कुछ है समान 
हम लोगों में
तो क्यों है ये भेद 
हम इंसानों में?

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